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राजनीतिनामा : क्यूँ हरदा, पार्टी में ही हार-दा…… पार्ट 2

आलाकमान और हरदा के बीच जारी रस्साकस्सी से कोंग्रेसी गुब्बारे में हवा भरती कम है और निकलती अधिक है

समूहिक नेत्रत्व में चुनाव लड़ना कॉंग्रेस आलाकमान के लिए उत्तराखंड में मजबूरी नहीं बल्कि उसकी च्वाइस है, शायद ही कोई राजनैतिक विश्लेषक होगा जो इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता होगा | हरदा भी भलीभाँति वाकिफ हैं कि कॉंग्रेस जीते या हारे, आलाकमान किसी भी कीमत पर उन्हे आसानी से मुख्यमंत्री नहीं बनाने वाला | तभी समूहिक नेत्रत्व में लड़ने के दावों के जबाब में हरीश रावत किसी न किसी माध्यम से चाहे सोशल मीडिया हो या बयान हो, अपनी सीएम पद की दावेदारी जताने से नहीं चूकते | आलाकमान और हरदा के बीच जारी इसी रस्साकस्सी का नतीजा है कि कोंग्रेसी उम्मीद के गुब्बारे में हवा भरती कम है और निकलती अधिक है |

हाल में ही उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी के ठिठके कदमों ने कॉंग्रेस की रफ्तार को तेज अवशय किया था | उस पर राहुल गांधी की रैली में टिकट के दावेदारों के शक्ति प्रदर्शन से नज़र आई भीड़ ने पार्टी समर्थकों में जोश बढ़ाने का काम किया | लेकिन 10 जनपथ के शुभचिंतकों और पूर्व सीएम हरीश रावत के बीच अविश्वास की खाई कम होने का नाम नहीं ले रही है | तभी तो पार्टी के केंद्रीय नुमाइंदे कॉंग्रेस स्क्रीनिंग कमेटी के अध्यक्ष अविनाश पांडे ने एक बार फिर सामूहिक नेत्रत्व में चुनाव लड़ने का शिगूफ़ा छेड़कर हरदा के स्वाभाविक दावे में पलीत लगा दिया | अब हरदा 2014 से 2016 तक उनको सीएम बनने से रोकने वाले नेताओं के एक बार फिर अपने खिलाफ गोलबंद होने का दर्द, लाख बार facebook पर बयां करें लेकिन दिल्ली दरबार में सुनवाई नहीं होने वाली | क्यूंकी उनको भी बखूबी अंदाज़ा है कि पार्टी में उनके विरोध की आग को हवा तो वहीं से मिल रही है | अब प्रदेश की राजनीति के इस कोंग्रेसी धुरंधर की हालत मरता क्या न करता है वाली है, तभी तो चुनावी सर्वे और जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं में पार्टी के एकछत्र नेता साबित होने के वावजूद भी सामूहिक नेत्रत्व का आदेश, उन्हे न निगलते बन रहा है न उगलते |

सूबे की राजनीति में पार्टी के चलते फिरते इनसाईक्लोपीडिया हरदा को जितना विश्वास इस बात में है कि उनके सीएम पद का चेहरा घोषित होते ही लगभग विरोधी खेमा तत्काल उनके आगे नतमस्तक होगा, उससे अधिक विश्वास उन्हे इस बात में है कि घोषित नहीं होने की स्थिति में उनके कुनबे में कोई बड़ा नाम भी नहीं बचने वाला | रही बात आलाकमान की तो उन्हे फूट डालो और राज करो की जाँची परखी रणनीति पर पूरा भरोसा है | क्यूंकि बेशक समय रहते परिस्थितिवश पौधों को जड़ पकड़ने से पहले ही उखाड़ने वाली इन्दिरा गांधी स्टाइल राजनीति का इस्तेमाल से वे करने से चूक गए हों लेकिन अब वह मजबूत केंद्र के लिए कमजोर क्षेत्रीय नेत्रत्व की रणनीति पर बखूबी अमल करने में जुटे हैं | चूंकि हरीश रावत की उम्र साथ नहीं दे रही है इसलिए वह आखिरी कोशिश के तौर पर भावनात्मक सोशल मीडिया पोस्टों और बयानों के माध्यम से पार्टी की कमान हासिल करने में जुटे हैं | हालांकि राजनीति के जानकारों की नज़र में कैप्टन अमरिंदर सिंह, अशोक गहलोत और हरीश रावत जैसे हैवीवेट नेताओं के लिए उनके तालाकमान का ताला खुलना लगभग असंभव है |

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